अपने वतन से दूर मज़दूरों के मुद्दे चुनावी मुद्दे क्यों नहीं बनते?

– शैतान रेगर, राजस्थान प्रदेश ईंट भट्टा मजदूर यूनियन

भारत में लोकतंत्र को 74 वर्ष पूरे हो चुके हैं व आज़ादी का अमृत काल चल रहा है। फिर भी यह लोकतंत्र अधूरा सा ही लगता है क्योंकि लोकतंत्र के इस पार्टी तंत्र ने देश के एक बड़े हिस्से को एक दम से भुला दिया है। देश में आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 के अनुसार कुल 53.53 करोड़ कामगारों में से 43.99 करोड़ कामगार, असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं, और यह मज़दूर बड़ी संख्या में एक शहर से दूसरे शहर या एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवास करते हैं। अपना गाँव, शहर या राज्य छोड़कर रोज़गार की तलाश में दूसरे शहरों या राज्यों की और रुख करने वाले कई श्रमिक, परिवार सहित भी पलायन करते हैं। यह प्रवास मौसमी, कुछ क्षेत्रों में काफी लम्बा और कई बार स्थायी भी होता है। यह मज़दूर अपने वतन वापस कब और कितने समय में आऐंगे, पता नहीं! 

देश भौगोलिक रूप से भले ही आज़ाद हो गया हो, लेकिन काम के कुछ क्षेत्रों में मज़दूर आज भी अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं, इन मज़दूरों के जीवन के कई महत्वपूर्ण निर्णय तो मालिक ही करता है। लोकतंत्र में हर पांच वर्ष में देश की सरकार बनाने के लिए सबसे बड़ा चुनाव लोकसभा, राज्यों के लिए विधानसभा व स्थानीय नगर निकाय व पंचायती राज के चुनाव होते हैं। लेकिन इस पंचवर्षीय चुनाव प्रणाली में पार्टी तंत्र की भूमिका ही महत्वपूर्ण रहती है। चुनावों में राजनैतिक पार्टियाँ जीतने के लिए पूरी ताकत लगाती हैं, अच्छे प्रत्याशी का चयन, धन, बल व घोषणा पत्र यह सब करती हैं, ताकि अपने-अपने दलों की सरकार बना सकें। बस सभी दलों से एक बड़ी चूक हो जाती है कि जब भी वह 50-100 पन्नों का चुनावी घोषणा पत्र बनाते हैं, तब इनमें देश की इतनी बड़ी श्रमिक आबादी के लिए पाँच लाइन की जगह भी नहीं मिलती है। जब मज़दूरों की बारी आती है तो या तो कागज़ कम पड़ जाता है या इनकी स्याही सूख जाती है। कुछ दल तो मात्र एक लाइन में ही इस विषय पर लिख कर खत्म कर देते हैं।

ऐसे में बड़ा सवाल जो उठते हैं वो यह हैं कि आखिरकार देश की इतनी बड़ी आबादी को राजनैतिक दल क्यों बिसरा देते हैं? क्यों इनके घोषणा पत्र मज़दूरों के मुद्दे पर सूने हो जाते हैं? ऐसा क्या कारण है कि एक किताब जितने बड़े घोषणा पत्र में, वह मज़दूरों के लिए थोड़ी भी जगह नहीं रख पाते हैं? ऐसी क्या मजबूरी है? क्या पूंजीवादी, ब्राह्मणवादी व्यवस्था के वाहक इसकी इजाजत नहीं देते या लोकतंत्र व राजनैतिक दलों के लिए मज़दूर कोई खास हैसियत नहीं रखते या मज़दूरों केई मुद्दे, मुद्दे ही नहीं हैं…!!!

कोविड जैसी महामारी के बाद मज़दूरों के हालात पूरे देश के सामने उभर कर आये हैं और सबने देखा कि कैसे पूंजीपतियों ने सभी मज़दूरों को सड़क पर मरने के लिए छोड़ दिया था, जबकि उन्होने अपने-अपने परिवारों को सुरक्षित रखने के लिए अपने महलनुमा घरों के दरवाज़े तक बंद कर लिए थे। शिक्षा, स्वास्थ्य, स्थानीय रोज़गार, शोषण, न्यूनतम मज़दूरी, बंधुआ मज़दूरी, मौलिक अधिकार व श्रम कानूनों की पालना जैसे सैकड़ों मुद्दे आज भी मुंह-बायें खडे़ हैं। लेकिन जब मज़दूरों की बात आती है तो सबके सब क्यों चूपी साध लेते हैं। सभी वर्गों के मुद्दों पर बात होती है, वो चुनावी मुद्दे भी बनते हैं, पर सिर्फ मज़दूरों पर ही बात क्यों नहीं होती है। क्या सबके वोट का मूल्य अलग-अलग है?

देश के संविधान निर्माताओं ने तो इस देश के प्रत्येक नागरिक को एक वोट का अधिकार दिया था। कहा गया कि गरीब हो चाहे अमीर, सबके वोट की कीमत बराबर होगी। जब वोट की कीमत समान है, तो बाकी मतदाताओं के हित व कल्याण के मुद्दों पर बात होती है, राजनैतिक दल घोषणा पत्र में भी लम्बा-चौड़ा लिखते हैं, चुनावों में चर्चा भी होती है पर सिर्फ मज़दूरों के मुद्दों पर ही बेरूखी क्यों

असंगठित क्षेत्र के मज़दूर जो स्थानीय स्तर पर काम नहीं मिलने के चलते एक ज़िले से दूसरे ज़िले में या एक राज्य से दूसरे राज्य में जाते हैं, इन मज़दूरों को वापस अपने घर आने में महीनों, सालों लग जाते हैं। कई बार तो वह अपने मताधिकार का उपयोग भी नहीं कर पाते हैं। अगर यह परवासी मज़दूर अपने मताधिकार का उपयोग करना भी चाहता है, तब भी वह अपनें गाँव या राज्य में जाने के लिए स्वतंत्र नहीं होता है। बहुत से क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें मालिक वोट डालने के लिए छुट्टी भी नहीं देता है, भले ही मतदान दिवस पर सवैतनिक अवकाश होता है, लेकिन यह अवकाश आज तक मज़दूर को कभी मिला ही नहीं। बहुत से कामों में तो छुट्टी ही नहीं मिलती और अगर छुट्टी मिलती भी है तो मज़दूरी नहीं मिलती।

देश में ऐसा ही एक व्यवसाय है ईंट भट्ठों का, इस पूरे व्यवसाय में सीजन भर के लिए नियमित मज़दूर चाहिए होते हैं। इस व्यवसाय में हर रोज़ नया मज़दूर नहीं लाया जा सकता है और देश में अधिकांश ईट भट्ठों पर प्रवासी मज़दूर ही काम करते हैं। जब भी चुनाव होते हैं, मालिकों द्वारा इन मज़दूरों को घर नहीं जाने देने से भट्ठों के सभी मज़दूर वोट देने से वंचित रह जाते हैं। इसलिए भी राजनैतिक दल व स्थानीय जनप्रतिनिधि इन मज़दूरों व उनके मुद्दों पर कम ध्यान देते हैं। स्थानीय व राष्ट्रीय स्तर पर मज़दूर संगठनों की मजबूत आवाज़ नहीं होने से भी मज़दूर व मज़दूरों के मुद्दे हाशिए पर रह गये हैं। मज़दूरों की दुर्दशा आज किसी से भी छुपी नहीं रह गई है। 

मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी, बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य, श्रम कानूनों की पालना, सुरक्षा के उपाय, सामाजिक सुरक्षा, और सरकार की कलयांकारी योजनाओं से मज़दूर कोसों दूर है। सबसे ज़्यादा मेहनत करने के बाद भी, देश में सबसे ज़्यादा खराब स्थिति किसी की है, तो वह मज़दूर ही है। देश की सत्ता व राजनैतिक दलों पर पूंजीपतियों का प्रभाव देखा जाता है, इसलिए भी मज़दूरों के मुद्दे हमेशा दोयम दर्जे के हो जाते हैं। सभी राजनैतिक दलों की प्राथमिकता सिर्फ मालिक तक ही सीमित होती है।

उत्तर प्रदेश के चित्रकूट ज़िले के मज़दूर सुरेश रैदास बताते हैं, “मैं पिछले 25 सालों से राजस्थान के ईंट भट्ठों में काम कर रहा हूँ। मैं अभी तक जीवन में 3-4 बार ही वोट डाला पाया हूँ। जब भी वोट पड़ते हैं, तब मैं अक्सर काम की वजह से बाहर ही रहता हूँ। कभी-कभी ही वोट पड़ते हैं। तब हमारे राज्य से फोन भी आता है लेकिन सीजन के बीच में भट्ठा मालिक भी नहीं जाने देता है, व बहुत दूर होने से हमारी मज़दूरी का भी नुकसान होता है। इतना किराया-भाड़ा लगाकर वोट डालने जाना भी संभव नहीं होता है, क्योंकि ईंट भट्ठों पर नियमित मज़दूरी नहीं मिलती है। मज़दूरी तो सीजन के अंत में ही मिलती है। बीच में मालिक पैसा नहीं देता है और मालिक का काम भी खराब होता है।”

बिहार के बांका ज़िले के मंटू लैया बताते हैं, “हम लोग तो गाँव से आने के बाद 9-10 महीने भीलवाड़ा राजस्थान के ईंट भट्ठों पर काम करते हैं, चुनाव कब होता है, पता ही नहीं चलता है। कभी-कभी गाँव के सरपंचों के चुनाव का पता चलता है, बाकी चुनाव में तो अंतिम बार कब वोट डाला है, याद ही नहीं है।”

मज़दूरों से बात करने से पता चलता है कि क्यों मज़दूरों के मुद्दे चुनावी मुद्दे नहीं बनते हैं। ज़्यादातर मज़दूर वोट ही नहीं डालते हैं, बल्कि सच तो यह है कि इनको वोट डालने ही जानें नहीं दिया जाता है, इसलिए चुनावों में राजनैतिक दल व प्रत्याशी व जनप्रतिनिधि मज़दूरों के मुद्दों पर चर्चा ही नहीं करते हैं। तभी हम लोग देखते हैं कि देश में लोकतंत्र लागू होने के इतनें वर्षों बाद भी, शत प्रतिशत मतदान नहीं होता है। अक्सर देखने में आता है कि लोकसभा चुनाव या विधानसभा में अधिकतम 60 से 80 प्रतिशत मतदान ही हो पाता है।

हम सबकी सामूहिक ज़िम्मेदारी बनती है कि देश में हर चुनाव में 100 प्रतिशत मतदान हो। कोई भी नागरिक किसी भी कारण से चाहे वो अपने गाँव, शहर, राज्य से बाहर रहते हों, वो मताधिकार से वंचित नहीं रहें। जब सभी मज़दूर अपने मताधिकार का उपयोग करेंगे तो निश्चित रूप से अपने मुद्दों के प्रति भी मुखर होंगे, तभी राजनैतिक दलों के घोषणा पत्र में भी मज़दूरों को जगह मिलेगी व चुनावों में भी चर्चा होगी।

जब देश में, ‘एक देश एक व्यवस्था’ जैसी कल्पना की जा रही है तो देश का नागरिक चुनाव के समय कहीं भी मौजूद हो, उसे उसी जगह पर मताधिकार देने की कुछ व्यवस्था हो। तय किया जाए कि प्रवासी मज़दूर भी अपने मताधिकार का उपयोग कर सकें, जिससे सरकारें और राजनैतिक दलों की चुनावी नीति में मज़दूरों के मुद्दों का अकाल खत्म किया जा सके।

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