एक हाथ के बिना भरत को कौन देगा काम? और कौन है इसका ज़िम्मेदार?

भरत लक्ष्मण पटेला की कहानी, रोहित चौहान के शब्दों में:

ये फोटो मेरी है। आप सोच रहे होंगे की मैंने कोई शैतानी की होगी जिससे मेरा दायाँ हाथ कट गया। मेरी उम्र के बच्चों के साथ ज़्यादातर खेलते हुए या कोई शैतानी करते हुए ऐसे अकस्मात हादसे हो जाते हैं। लेकिन मेरी कहानी कुछ अलग है।

मेरा नाम भरत है, मैं एक छोटे से गाँव सागवाड़ा के एक गरीब आदिवासी परिवार में पैदा हुआ हूँ। मेरे पिता बीमारी के चलते हमारे एक-दो एकड़ के खेत में काम करने के अलावा और कुछ कर नहीं पाते थे। अब हमारी आर्थिक स्थिति की तो क्या ही बात करनी। भील प्रदेश (राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा के साथ जुड़ा हुआ आदिवासी विस्तार/इलाका) के अधिकतर लोगों की यह एक सामान्य सी स्थिति है। हमारे लोगों ने कई साम्राज्य आते-जाते देखे, पर हम हमारे जंगलों के बीच में खुश थे। हमने कई लड़ाई देखी भी और लड़ी भी, अंग्रेज़ों से आज़ादी के बाद हमें भी सुनहरे सपने दिखाए गए। इस आज़ादी से हमें क्या कोई फर्क पड़ता था, तो इसका सीधा जवाब तो ना ही होगा। अंग्रेज़ों ने भी हमारे जंगल काटे और बाद में आई आज़ाद भारत की सरकारों ने भी हमारे जंगल काटे। मैं सिर्फ 16 साल का बच्चा हूँ, मुझे ज़्यादा नहीं पता, लेकिन हमारे बुजुर्ग कहते हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था पैसों की बजाय एक-दूसरे की मदद करने से ज़्यादा चलती थी। पर कुछ समय में अब एक और दौर आया है, जहाँ हमारे लोग काम की तलाश में दर-दर भटकने लगे। दक्षिणी राजस्थान के हमारे आदिवासी परिवार गुजरात के हरे खेतों में, ऊँची इमारतों में, मिलों में, काम करने के लिए जाने के लिए मजबूर हो गए। मेरे माता-पिता भी काम के लिए प्रवास करते थे। जब मेरे पिताजी के शरीर ने जवाब दे दिया, तब से वो लोग नहीं जा रहे हैं। फिर घर में खाने के लिए भी कभी-कभी रोटी की कमी होती गई। मेरे पिताजी ने ब्याज पर पैसे उधार लिए। वो भी कितने दिन चलते, तभी मेरे 17 साल के भाई को उदयपुर के एक बढ़िया होटल में वेटर का काम मिल गया। हम काफी खुश हुए, उसको 15 हज़ार की तनख्वाह  मिलती थी। उसके बाद हमारे घर की स्थिति थोड़ी ठीक हुई तो मैं भी पढ़ाई के लिए स्कूल जाने लगा।

मैं स्कूल तो जा रहा था, पर मेरे पिताजी और मेरा बड़ा भाई मेरी कोई बात सुनते नहीं थे। ना वो मुझे अच्छे कपड़े दिलवाते या कोई खिलौना लेकर देते। हमारे गाँव में सरपंच के लड़के ने अभी-अभी नया बड़ा वाला मोबाइल लिया था, वो मुझे और मेरे दोस्तों को दिखाता था, मोबाइल में वो बढ़िया फोटो लेता, कभी-कभी हमारा वीडियो भी बनाता। हम काफी मजे करते थे। उसके मोबाइल में दूसरे लोगों के अजीब-अजीब वीडियो भी आते रहते थे। कोई गा रहा होता था, कोई नाचते थे उसके वीडियो में। वो तो ठीक है, लेकिन उसमें लड़कियों की भी तस्वीरें और वीडियो आते थे। उसने मुझे कई बार दिखाया कि वो भी पड़ोस के किसी गाँव की एक लड़की के साथ बात करता था। एक बार होली के दिन मैंने उससे मेरा एक फोटो लेने के लिए बोला। लेकिन उसने साफ मना कर दिया और मुझे ताने भी मारे। मुझे गुस्सा तो आया लेकिन और क्या ही करें, हमारे घर में तो एक ही मोबाइल था। वो भी भाई के पास रहता था, उसमें भी सिर्फ बात होती थी, एक साधारण मोबाइल था। ऐसा नहीं कि मैंने अपने भाई से नहीं कहा, मैंने जिद भी की, कि वो मुझे एक मोबाइल दिलवा दे। लेकिन वो बेचारा ले पाता तो खुद ही ना ले लेता! 

उसने दो साल के बाद मुझे नए कपड़े ले दिए और बोला अगले साल पक्का उस सरपंच के लड़के से भी ज़्यादा महंगा मोबाइल दिलवाएगा। पिताजी तो खुद मेरे भाई से पैसे लेते थे, उनसे पैसे मांगने का कोई मतलब नहीं था। तभी मुझे पता लगा कि मेरे गाँव के बच्चू मामा गुजरात में कहीं काम करने के लिए लोग खँगाल रहे थे। मेरी दसवीं की परीक्षा पूरी हो गई थी, अब दो महीने तक परिणाम की राह देखनी थी। मैंने अपने एक दोस्त के साथ योजना बनाई कि हम दोनों बच्चू मामा के साथ जायेंगे, दो महीने काम करेंगे और वापस लौट आयेंगे। फिर जो पैसे मिलेंगे उससे नया मोबाइल खरीदेंगे और मैं माँ को एक नई साड़ी भी दिलवा दूंगा। हमने बच्चू मामा से बात की और वो तैयार हो गए। हमारे गाँव से मेरी उम्र के कई बच्चे मज़दूरी करने के लिए जाते ही थे, वो कोई बड़ी बात नहीं थी। मैंने पिताजी को जैसे-तैसे करके मना लिया, लेकिन भाई नहीं मान रहा था। मैंने भी ठान ली थी और वो भी कहाँ यहाँ गाँव में रुकने वाला था, वो तो उदयपुर चला ही जायेगा, तभी मैं भी निकल जाऊँगा। 

मौका मिलते ही हम दोनों बच्चू मामा के साथ निकल लिए। रास्ता काफी लम्बा था और हम जिस इको गाड़ी में बैठे थे, उसमें कुल 18 लोग थे। मुझे पता लगा कि हम गुजरात के राजकोट ज़िले में एक जिनिंग मिल में काम करने जा रहे थे। हम वहाँ पहुँचे, मिल के पास ही छोटे-छोटे कमरे थे, उसमें से एक कमरे में मेरे साथ और 9 लोगों को रखा गया। दूसरे दिन हमारी पहचान मालिक के साथ करवाई गई। मालिक ने कहा कि बढ़िया काम करोगे तो अगली बार भी वो हमें ही बुलाएगा। बच्चू मामा ने हम दोनों को काम समझाया। गर्मी का मौसम था इसलिए हमें रात को काम करना पड़ेगा। मुझे रुई डालने वाली एक मशीन को साफ करने का काम मिला। मैं धीरे-धीरे समझ रहा था कि वहाँ क्या हो रहा था और क्या बन रहा था।

हम काम करते रहे, पर वो ध्यान रखने वाला आदमी चिल्लाता काफी था, बैठने भी नहीं देता था और गालियाँ बकता रहता था वो अलग से, लेकिन मैं अकेला थोड़ा गाली सुनता था। बच्चू मामा को भी वो डांटता रहता था। मैं थक जाता था लेकिन फिर मोबाइल याद आता और मैं काम में लग जाता। अब काम करते लगभग एक महीना हो गया था। एक दिन मेरी तबीयत थोड़ी ठीक नहीं थी, लेकिन छुट्टी का नाम लेना भी पाप था वहाँ। हमने शाम को काम करना शुरु किया, रात के खाने के बाद फिर से काम में लग गए। बच्चू मामा ने मुझे दवाई लाकर दी थी, उसे पीकर मुझे नींद भी आ रही थी। रात को बारह बजे के करीब जिस मशीन के अन्दर रुई जाती है, वहाँ थोड़ी रुई उसके नुकीले चाकू के आस-पास फंस जाती थी, मैं उसे साफ कर रहा था। अब पता नहीं क्या हुआ लेकिन मेरा हाथ उस मशीन के अंदर चला गया और पूरा गन्ने के जैसे पिस गया। मेरे कंधे से खून की बौछारें निकलने लगी, मिल में भागदड़ मच गई। सभी मशीनें जल्दी बंद की गई। मुझे तो याद भी नहीं क्या-क्या हुआ, ये सारी बातें तो बाद में मुझे मेरे दोस्त ने अस्पताल में बताई थी। जल्द ही एम्ब्युलेंस बुलाई गई और मुझे अस्पताल भेजा गया, वहाँ पर क्या हो रहा था वो भी मुझे याद नहीं। तीन दिन बाद मुझे जब होश आया तो मैंने देखा कि मेरा दायाँ हाथ तो है ही नहीं। गाँव से मेरे परिवार वाले सब आ गए थे, वो रो रहे थे। दर्द तो काफी हो रहा था, लेकिन अभी भी मोबाइल तो मेरे दिमाग में था, मेरा भाई रोते-रोते बोल रहा था, “मैं तुझे दिला देता ना मोबाइल, यहाँ पर आने की तुझे क्या ज़रूरत थी!” 

मैं सोचता हूँ तो मुझे अहसास होता है कि मैं तो मोबाइल के लिए आया था। लेकिन मेरे जैसे कई बच्चे तो सिर्फ अपने परिवार का पेट भरने के लिए मज़दूरी करने के लिए मजबूर हैं। यही ज़िंदगी है मेरे जैसे गरीब आदिवासी लोगों की। अब एक हाथ के बिना क्या मैं मज़दूरी कर पाऊँगा, क्या मेरी शादी होगी… ऐसे कई सवाल हैं। लेकिन मैं सोचना नहीं चाहता, अभी तो मैं सिर्फ अपने घर जाना चाहता हूँ।

इस कहानी के शब्द मेरे तो नहीं हैं, मैंने अपनी भाषा में जो भी रोहित भैया को बताया, वही उन्होंने लिखा है। हाँ, यह है मेरी ही कहानी।

भरत सागवाड़ा गाँव के उदयपुर ज़िला, राजस्थान में रहते है। भरत एक आदिवासी परिवार से है और रोहित के माध्यम से अपनी ज़िन्दगी की कहानी आप सब तक पहुंचा रहे है।

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