गुड़ की छाया: गन्ने के खेतों में बचपन

रोहित चौहान, गुजरात

फरवरी महीने में हमें पुणे के बारामती में गन्ना श्रमिकों के पड़ावों में जाने का मौका मिला। सुबह हम बारामती शुगर फैक्ट्री के पास के एक पड़ाव में पहुँचे। अधिकाँश मज़दूर गन्ना काटने के लिए खेतों में गए हुए थे, कुछ महिलाएं थीं जो खाना बनाने में व्यस्त थीं, तीन भाई-बहन पास की नहर पर अपनी भैंस को नहला रहे थे। भैंस भी आनंद ले रही थीं, गौरी (बदला हुआ नाम) उन तीनों में सबसे बड़ी थी। उससे बात करने पर पता चला कि वे लोग चालीसगाँव के मूल निवासी थे और वह वहाँ दूसरी कक्षा में पढ़ रही है। लेकिन वह साल के 5 से 6 महीने अपने माता-पीता के साथ यहीं रहने को मजबूर है। यहाँ वह अपनी माँ के काम में सहयोग करती है और गौरी पर, भैंस-बकरी के साथ-साथ, अपने दो छोटे भाइयों की देखभाल की भी ज़िम्मेदारी थी। बाद में यह भी पता चला की उसका एक बड़ा भाई भी है जो 10 साल का है और वह गन्ना काट कर जिस बैल गाड़ी में भरा जाता है, उस बैल गाड़ी को चलाने का काम करता है। गौरी उन बैलों की नाल बदलने और उनको मरम्मत का काम भी जानती और करती है। कैंप में गौरी जैसी कई लड़कियाँ थीं। दिनभर में हम काफ़ी सारे मज़दूरों के आवास कैंप में गए। उनमें से ज़्यादातर पड़ाव रात में ज़िन्दा हो गए थे और वहाँ ज़िंदगी धड़क रही थी।

रात में सभी महिलाएं फिर से रसोई की तैयारी में जुटी थीं। वहीं बच्चे भी अपने दोस्तों के साथ तरह-तरह के खेल खेलते दिखे। थोड़ी जल्दी थी क्यूंकि सुबह महिलाओं को नाश्ता और दोपहर का खाना बनाने के लिए 3 बजे उठना पड़ता है। सुबह 4 से 5 बजे तक में सभी को खेतों में पहुँच के, गन्ना काटना शुरू कर देना होता है। इस प्रकार पड़ाव का जीवन एक ही समय-सारणी के अनुसार लगभग आधे वर्ष तक चलता रहता है। कुछ पड़ाव में किसी संगठन द्वारा संचालित शिक्षा केंद्र भी चल रहे थे, जो दोपहर 1 बजे से शाम तक चलते थे। बच्चों का मध्याहन भोजन भी दिया जाता था, लेकिन स्थानिक केंद्र ने पाया कि बच्चे केवल दोपहर का भोजन करने आते थे और फिर पढ़ने के बजाय फिर से अपने माता-पिता के साथ काम के लिए चलते जाते थे, इस कथन में अतिशयोक्ति हो सकती है। शायद यह दिखाने की कोशिश होगी की स्थानीय केंद्र बच्चों को इस केंद्र में लाने का प्रयास कर रहे हैं। संक्षेप में कहें तो एक चक्र चल रहा है, जिससे कोई बाहर नहीं निकल सकता। वर्तमान मज़दूर दूसरी या तीसरी पीढ़ी के थे, उनके दादा-दादी या माता-पिता ने भी यही काम किया था और अब ये लोग भी वही करने को मजबूर हैं। 

मेरा देश विकास कर रहा है, कहीं न कहीं से सुनने को मिलता है कि भारत अब दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है, लेकिन ये लोग वास्तव में इस कथन से जुड़ सकते हैं? एक बड़ा प्रशंचिह्न है जिसका उत्तर फिलहाल तो नहीं दिया जा सकता।

लेखक के बारे में: रोहित गुजरात के जूनागढ़ ज़िले में रहते हैं और वर्तमान में सेंटर फॉर लेबर रिसर्च एंड एक्त्शन (CLRA) संस्था में काम कर रहे हैं। साथ ही में वह सौराष्ट्र दलित संगठन और मज़दूर अधिकार मंच यूनियन से भी जुड़े हुए हैं। फ़िलहाल वह CLRA के साथ मिलकर प्रवासी आदिवासी मज़दूरों के लिए सौराष्ट्र (पश्चिम गुजरात) में काम कर रहे हैं।

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