क्या लोकतंत्र का चुनावी उत्सव ज़मीनी स्तर पर बस मजाक बनकर रह गया है?

रोहित चौहान, गुजरात

छोटा उदयपुर (गुजरात), मूल रूप से जंगलों, पहाड़ों और नदियों वाला एक आदिवासी क्षेत्र है, यहाँ की मुख्य जातियाँ राठवा, भील, कोली और नायक हैं। राठवा एक लड़ाकू जाति है और क्षेत्र की मुख्य जाति है। इन जनजातियों का मुख्य व्यवसाय कृषि है और इनकी कृषि भूमि पहाड़ों में चट्टानी इलाकों में फैली हुई है। इस क्षेत्र में अधिकांश आदिवासी भूमिहीन हैं या उनकी भूमि में सिंचाई की कोई व्यवस्था नहीं है, वह बारिश के मौसम में केवल एक ही फसल उगा सकते हैं। गुजरात की जीवन रेखा नर्मदा नदी इतनी करीब होने के बावजूद भी ये लोग सिंचाई के लिए नर्मदा के पानी का उपयोग नहीं कर सकते हैं।

कुछ समय पहले मेरी मुलाकात इसी क्षेत्र के रहने वाले बाबूभाई नायक से हुई, वह पिछले दस वर्षों से खेत मज़दूरी के लिए हर साल सौराष्ट्र और उत्तरी गुजरात क्षेत्रों की यात्रा करते रहते हैं। गुजरात में खेत मालिक अपने खेत में काम करने वाले मज़दूरों को कुल उपज का एक चौथाई या पाँचवा हिस्सा देते हैं। अतीत में स्थानीय दलित, कोली और अन्य पिछड़े समुदायों के भूमिहीन स्थानीय मज़दूर ज़्यादातर इस प्रथा में लगे हुए थे, लेकिन पिछले 20 वर्षों में इनकी जगह बाबुभाई जैसे प्रवासी मज़दूरों ने ले ली है। अधिकांश खेत मालिक इन मज़दूरों को अग्रिम नकदी देकर अपने खेत में 24 घंटे काम करने के लिए लाते हैं और खाते की किताबों में गड़बड़ करके या कुल सकल उपज की सही जानकारी नहीं देकर इन मज़दूरों के साथ अन्याय कर रहे हैं। समझने की बात यह है कि अगर एक आदिवासी परिवार, जिसमें ज़्यादातर चार से पाँच लोग होते हैं, साल भर खेत में कड़ी मेहनत करता है, तो भी उन्हें साल के अंत में केवल एक से दो लाख का ही मुनाफा मिल पाता है।

बाबूभाई भी वर्षों से इस प्रथा में शामिल हैं, अब उनके दो बेटों की शादी हो चुकी है, इसलिए उनकी पत्नी, उनके दो बेटे और उनकी पत्नियाँ भी बाबूभाई के साथ खेत में मज़दूरी करने आते हैं। पिछले साल बाबूभाई अपने परिवार के कुल 6 सदस्यों के साथ मोरबी ज़िले के एक गाँव में खेत मज़दूरी करने आए थे। पूरे साल काम करने के बाद उन्हें जब खाता दिखाया गया तो उसमें से अब तक उन्होंने टुकड़ों में 1 लाख 50 हज़ार रुपये निकाल लिये हैं, ऐसा हिसाब लिखा था, अब उनके हिस्से में केवल 53 हज़ार रुपये ही बच रहे हैं। बाबूभाई का बड़ा बेटा, जो प्राथमिक स्तर तक शिक्षित था, उसको खाते में कुछ गड़बड़ी दिखाई दी, इसलिए उसने मालिक से बेची गई उपज के बिल मांगे। जब खेत मालिक ने इन लोगों को बेदखल करने की धमकी दी तो ये लोग मुझे अपनी परेशानी बताने आए। मज़दूर अधिकार मंच पिछले 15 वर्षों से काम कर रहे ऐसे ही असंगठित मजदूरों का यूनियन है, मैं इसका कार्यकारी सदस्य भी हूँ, बाबूभाई जैसे कई मज़दूर हमारे पास अपनी शिकायतें लेकर आते हैं और हम उन्हें क़ानूनी जानकारी प्रदान करके मदद करते हैं।

गुजरात में इसी महीने चुनाव के लिए मतदान था, इसलिए मैंने बाबूभाई से पूछा भी कि आप इतने नाराज़ हो रहे हैं, इस मामले में आप अपने स्थानीय प्रतिनिधियों या विधायकों का ध्यान क्यों नहीं आकर्षित करते हैं। उन्होंने तुरंत उत्तर दिया कि हमारे गाँव में कोई भी प्रचार करने नहीं आया। बातचीत आगे बढ़ी तो मैंने पूछा कि आपने वोट किसको दिया? उन्होंने बताया के उनके गाँव के सरपंच ने मतदान से एक रात पहले सभी को बुलाया और कहा कि आप लोगों को किसान सहायता योजना के तहत सरकार की ओर से हर साल 2 हज़ार रुपये मिलते हैं और पर्याप्त राशन भी मिलता है। आप लोगों ने इन योजनाओं का अधिक से अधिक लाभ उठाया है, इसलिए आपको हमारी सत्ताधीश पार्टी को वोट देना है। सरपंच विशेष महुआ की शराब भी लेकर आए और शराब की बोतल के साथ सभी को कोल्ड ड्रिंक की बोतल भी दी। बाबूभाई के मुताबिक कोल्ड ड्रिंक की बोतल खत्म हो जाने के कारण उनके हिस्से में नहीं आई। यह सुनकर मुझे थोड़ा गुस्सा आया मगर मैंने उनसे शांति से पूछा, “सरकार ने खेतिहार मज़दूरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी 375 रूपए प्रतिदिन की घोषणा की है, आपको इसके अनुसार पारिश्रमिक क्यों नहीं मिल रहा है? आंशिक प्रणाली में आपके साथ गलत व्यवहार किया जा रहा है तो उससे इसके बारे में आप क्यों नहीं पूछते हैं? आप इतने वर्षों से एक ही पार्टी को वोट दे रहे हैं और प्रति वर्ष मिलने वाले 2,000 रूपए से संतुष्ट हैं, लेकिन सरकारी आदेशों का उल्लंघन करने वालों द्वारा सही मज़दूरी ना मिलने से आपको जो नुकसान हो रहा है उसका क्या?” उन्होंने गहरी साँस लेते हुए कहा, “आपकी बातें सही हैं सर, लेकिन हमारे नायक लोगों की आबादी कम है और राठवा समुदाय के लोग सत्तारूढ़ दल से जुड़े हुए हैं, साथ ही हमारे सत्यवचन (हिन्दू संप्रदाय) आश्रम के गुरु हमें वोट देने के लिए मजबूर कर रहे हैं। हम लोग कैसे आवाज़ उठाएंगे, हमें तो पूरी ज़िन्दगी इस तरह ही जीना है।”

बाबूभाई कारण गिना रहे थे और मेरे दिमाग में यह चल रहा था कि कभी अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने वाले मज़बूत आदिवासियों ने शायद अब आत्मसमर्पण कर दिया है। अब इन लोगों में लड़ने की इच्छा खत्म हो गई है और वह यह सोचने में सक्षम नहीं हैं कि इस देश में उनके मुद्दों पर भी कभी ध्यान दिया जाएगा। 2024 के लोकसभा चुनाव, असल मुद्दों से भटकाने वाले और लोगों को गुमराह करने वाले साबित हो रहे हैं और लोकतंत्र का यह सबसे बड़ा उत्सव बस मजाक बनकर रह गया है।

लेखक के बारे में: रोहित गुजरात के जूनागढ़ ज़िले में रहते हैं और वर्तमान में सेंटर फॉर लेबर रिसर्च एंड एक्त्शन (CLRA) संस्था में काम कर रहे हैं। साथ ही में वह सौराष्ट्र दलित संगठन और मज़दूर अधिकार मंच यूनियन से भी जुड़े हुए हैं। फ़िलहाल वह CLRA के साथ मिलकर प्रवासी आदिवासी मज़दूरों के लिए सौराष्ट्र (पश्चिम गुजरात) में काम कर रहे हैं।

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